सोमवार, 2 नवंबर 2020

वर्तमान पर्यावरण संकट एवं समाधान की दिशा

 प्रकृति-पर्यावरण की भी सुध ली जाए

पर्यावरण संकट के दौर का अभिशप्त जीवन - आज हम पर्यावरण संकट के विषम दौर से गुजर रहे हैं। पर्यावरण का हर घटक, चाहे वह जल हो या वायु, थल हो या नभ हर कौना प्रदूषण की गंभीर मार से त्रस्त है। महानगरों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में तो इसकी विकरालता अपने चरम पर है, जिसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है। यहाँ की एक बड़ी आबादी इसके दमघोंटू वातावरण के बीच जीने के लिए अभिशप्त है, जो चिंता का विषय है, विचारणीय है। इसका प्रसार तेजी से शहरों व कस्वों में हो रहा है। नजदीक के गाँव भी इसकी चपेट में आ रहे हैं।

ऐसे क्षेत्रों की नदियों को देखें, अधिकाँशतः गंदे नालों में तबदील हो चुकी हैं। जहाँ से भी ऐसी नदियाँ गुजरती हैं, इनके साथ मिलते खेतों में प्रयुक्त होने वाले विषैले रसायन, कीटनाशक भूमि के साथ भूमिगत जल को भी दूषित कर रहे हैं। इसके किनारे की आबादी कैंसर जैसे गंभीर रोगों के साथ जीने के लिए अभिशप्त है। हवा में नित्य घुलता जहर सांस सम्बन्धी कितने रोगों का कारण बन रहा है।

विक्षिप्तता की ओर ले जाता महानगरीय जीवन - बढ़ते प्रदूषण के कारण महानगर अपने दमघोंटू वातावरण के साथ गैस चेम्बर का रुप ले चुके हैं। उस पर ध्वनि प्रदूषण मिल जाने पर महानगरों का पर्यावरण एक स्वस्थ व्यक्ति को भी विक्षिप्तता की ओर ले जाने वाला सावित हो रहा है। विक्षिप्तता के इस माहौल में मनोरोग, अपराध एवं सामाजिक विघटन की घटनाएं बढ़ रही हैं, जो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

समाधान के प्रयास एवं मूल कारण की खोज - ऐसे में, पर्यावरण प्रदूषण को ठीक करने के तमाम प्रयास चल रहे हैं। वैज्ञानिक नए अनुसंधानों के साथ, तो राजनेता नए कानूनों के साथ और बुद्धिजीवी तमाम सेमीनार-गौष्ठियों, नीति निर्माण एवं शोधपत्रों के माध्यम से इसके समाधान में जुटे हैं। इस सबके बावजूद पर्यावरण प्रदूषण का संकट और विकराल रुप लेता जा रहा है। पर्यावरण संकट के आत्यांतिक समाधान के लिए लिए इंसान को इसके मूल तक उतरना होगा, जो सीधे प्रकृति के साथ इंसान के सम्बन्धों पर टिका हुआ है।

प्रकृति की गोद में सभ्यता-संस्कृतियों का उद्भव-विकास - वस्तुतः पर्यावरण प्रकृति का ही स्थूल घटक है। प्रकृति से इंसान का कैसा सम्बन्ध है, इससे पर्यावरण  की स्थिति निर्धारित होती है। जब तक इंसान का प्रकृति के साथ स्वस्थ व सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध रहा, पर्यावरण स्वच्छ एवं संतुलित रहा। प्रकृति की गोद में ही तमाम सभ्यताओं का उद्भव हुआ और संस्कृतियां विकसित हुई।

विश्व की प्राचीनतम संस्कृति के प्रतिनिधि विचारशील ऋषि-मुनि प्रकृति की छत्र-छाया में वन अरण्य में विद्यार्जन करते हुए जीवन के सूत्रों की खोज करते रहे। जीवन के रहस्यों पर गहन चिंतन-मनन करते हुए जीवन की रीति-नीति का शाश्वत दर्शन व दिशा बोध (सनातन धर्म) दे गए।

प्रकृति के प्रति पूजनीय एवं श्रद्धास्पद भाव - प्रकृति के साथ स्वस्थ, श्रद्धास्पद एवं सहयोगात्मक संबंध में ही वैदिक ऋषियों ने मनुष्य के सुख शांति एवं कल्याण का मर्म देखा। यज्ञ जैसी विधा को संस्कृति के केंद्र में रखकर प्रकृति के प्रति पूजनीय एवं श्रद्धास्पद भाव को बनाए रखा, जो आज भी कुछ अंशों में सांस्कृतिक संस्कारों के रुप में विद्यमान है। प्रकृति के हर घटक के प्रति सम्मानीय एवं पूजनीय भाव इसकी मौलिक विशेषता रही।

विज्ञान एवं विकास के उन्माद में बिगड़ता संतुलन - किन्तु आधुनिक युग में पश्चिम में उठी भौतिकवाद की आँधी ने मानवीय आस्था एवं सोच में उलटफेर कर दिया। धर्म का स्थान विज्ञान ने ले लिया और प्रकृति के प्रति आस्था भाव खोता गया। संस्कृति, विकृति का शिकार हो चली व मानव और प्रकृति के मधुर रिश्ते खत्म होते गये। अपने विकास के उन्माद में विज्ञान प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का दंभ भरने लगा और अपने को उसके पुत्र व सहचर का रिश्ता भूल गया।

 विज्ञान का उपयोगितावादी दृष्टिकोण एवं पर्यावरण चेतना का लोप - प्रकृति से जो आत्मीय भाव था, वह आस्था की कमी के कारण बेचैनी, प्रतियोगिता, उपभोक्तावादिता और आक्रामकता में बदल गया। विज्ञान प्रकृति को उपयोगितावादी दृष्टि से देखता है। परिणाम स्वरूप प्रकृति के प्रति इसमें उस जीवन दर्शन का सर्वथा अभाव है जो उसमें श्रद्धास्पद भाव रखता हो। प्रकृति के प्रति उस सौंदर्य बोध के भी दर्शन नहीं होते, जो प्रकृति के सान्निध्य में शांति, आनन्द और रचनात्मकता से भरी सृजनशीलता का प्रेरक बन सके।

भौतिक चिंतन एवं भोगवादी जीवन दर्शन के चलते इंसान पहले से अधिक लोभी एवं स्वार्थी हो गया है। इसके साथ पर्यावरण चेतना का भी लोप हो गया है, जो अपने परिवेश व इसके अभिन्न घटकों, वृक्ष-वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं व नदी-तालाबों एवं पर्वत-मरूस्थल में भी आत्मीय भाव का आरोपण कर सके। 

पर्यावरण संरक्षण के सशक्त सांस्कृतिक आधार - जबकि आज भी देश के ग्रामीण आंचलों में ऐसे सांस्कृतिक पॉकेट मौजूद हैं, जहाँ वृक्षों की पूजा की जाती है, देवताओं के नाम पर अर्पित बनों का सहज रुप में संरक्षण हो रहा है। नदियों और पर्वतों को पूजनीय मानकर इनके संरक्षण की प्रक्रिया जारी है। यहाँ तक कि जीव-जंतुओं के प्रति भी आत्मीय भाव जीवित है, जिसके चलते पर्यावरण संरक्षण की सशक्त सांस्कृतिक परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहमान है।

 प्रकृति का अतिशय दोहन एवं आपदाओं की मार - लेकिन अपने सांस्कृतिक जड़ों से कटे प्रभावशाली जनसमूह के कारनामों की परिणति भयावह है। यहाँ प्रकृति के अतिशय दोहन से पर्यावरण संतुलन डगमगा रहा है व जिसकी परिणति बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन, अतिवृष्टि, अकाल, सुनामी लहरों, तेजाबी वर्षा जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में कहर बरसा रही है। 

पर्यावरण विघटन के साथ व्यक्तित्व विघटन एवं समाधान की तलाश -इस पर्यावरण असंतुलन से मानवी अंत:करण भी अछूता नहीं है। आुधनिक शोध अध्ययन बढ़ते मनोरोगों, मनोविक्षिप्तता एवं व्यक्तित्व विघटन के मूल में प्रकृति एवं पर्यावरण असंतुलन को एक प्रमुख कारक के रूप में पा रहे हैं। मानव और प्रकृति-पर्यावरण के बीच फिर से स्वस्थ एवं मधुर सम्बन्ध कैसे स्थापित हो? इस यक्ष प्रश्र को लेकर पर्यावरणविद् एवं विचारशील समुदाय चिंतनरत् हैं। 

पर्यावरण संकट के विषम दौर में बनें समाधान का एक हिस्सा - प्रकृति और मानव में एकता लाये बिना, इनके सम्बन्धों को पुन: आत्मीय बनाये बिना न तो मानवीय अस्तित्व सुरक्षित रह पायेगा और न ही इसके विकास के साथ स्थायी सुख, शांति व समृद्धि का स्वप्र पूरा हो सकेगा। प्रस्तुत पर्यावरण संकट का समाधान प्रकृति के प्रत्येक घटक के प्रति स्वस्थ एवं संवेदनशील व्यवहार एवं उपयोग से जुड़ा हुआ है, जिसे हर विचारशील इंसान को अपने स्तर पर निभाना होगा और दूसरों को भी इसके प्रति सचेष्ट करना होगा। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि पर्यावरण संकट के इस विषम दौर में कहीं हम विकाराल रुप ले रही इसकी समस्या का हिस्सा तो नहीं हैं।

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