शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

कृषि एवं ग्रामीण पत्रकारिता

 ठोस पहल का समय 

    कृषि और ग्रामीण पत्रकारिता की वर्तमान दशा -  

    कृषि और ग्रामीण पत्रकारिता आज हाशिए में है। रोज के अखबार उठाकर देखें तो स्पष्ट होता है कि किसी भी अखबार में कृषि व गाँव को लेकर कोई नियत कॉलम नहीं है, न ही कोई साप्ताहिक परिशिष्ट। कभी द हिंदु का साप्ताहिक परिशिष्ट हुआ करता था, लेकिन आज वह भी गायब हो चुका है। यही स्थिति पत्रिकाओं की है। टीवी की स्थिति तो ओर भी बदतर है। हालांकि कुछ पत्रिकाएं व टीवी चैनल गाँव व खेती को लेकर सामग्री देते हैं, और कुछ नए प्रयास इस दिशा में दिखते हैं, लेकिन ये पूरी स्थिति को देखते हुए ऊँट में मुंह में जीरा के समान हैं।

    घाटे का पेशा कृषि और उजड़ते गाँव - 
 
    जब गाँव के गाँव उजड़ रहे हों, किसान खेती छोड़ रहे हों व आत्महत्या करने के लिए बाध्य हों, तो इस विकट स्थिति में गंभीर विचार आवश्यक हो जाता है। उत्तराखण्ड के लगभग 40 फीसदी गाँव उज़ड़ चुके हैं। देश में आजादी के बाद लगभग 40 फीसदी किसान खेती का पेशा छोड़ चुके हैं और किसान आत्महत्या का आल्म थमने का नाम नहीं ले रहा। पंजाब जैसे समृद्ध राज्य में जब ऐसा कुछ होता देखते हैं, तो ताज्जुक होता है। कुला मिलाकर खेती आज घाटे का सौदा सावित हो रही है और गाँव में रहना पढ़ी-लिखी पीढी को रास नहीं आ रहा।

    अभी भी गाँवों में बसता है भारत – 
 
    जबकि, अभी भी 70 फीसदी आबादी गाँव में बसती है। कुल आवादी का 50 हिस्सा खेती कर रहा है। लेकिन देश की आर्थिक व्यवस्था में इसका योगदान मात्र 17 फीसदी है। यह भी सच है कि सरकार की तरफ से कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र की लम्बे समय तक उपेक्षा होती रही है, लेकिन स्थिति की गंभीरता को देखते हुए, बजट में आशाजनक प्रावधान किए गए हैं, जिसमें वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दुगुना करने का महत्वाकाँक्षी लक्ष्य रखा गया है और ऐसी योजनाएं बनाई गई हैं। लेकिन धरातल पर कितना कुछ हो पाया है, समीक्षा की आवश्यकता है। फिर खाली सरकार के भरोसे बैठना सही नहीं। आवश्यकता हर स्तर पर कुछ गंभीर चिंतन और ठोस पहल की है।

    नफे का पेशा बन सकती है खेती-किसानी
 
    यह बहुत हद तक सही है कि पारम्परिक फसलों में पैदावार और आमदनी सीमित होती है। लेकिन यदि थोड़ा हेरफेर के साथ उन्नत किस्मों के साथ आधुनिक कृषि तकनीकों का उपयोग किया जाए तो आमदनी कई गुणा बढ़ सकती है। कई प्रबुद्ध व जागरुक किसान ऐसा सफल प्रयोग कर चुके हैं। हम ऐसे कई गाँवों के साक्षी हैं, जहाँ दो दशक पहले वेरोजगार, अवारा और नशेड़ी युवा हुआ करते थे, सही मार्गदर्शन के चलते आज मेहनतकश और आर्थिक रुप से स्वाबलम्बी जीवन जी रहे हैं। सब्जी उत्पादन से लेकर फलों की उन्नत किस्मों के साथ समृद्धि की नई लहर हम अपने क्षेत्र में देख रहे हैं। निष्कर्ष यह भी कहता है कि किसान जितना पढ़ा-लिखा होगा, उतना ही बेहतर काम कर सकता है और किसानी की परिभाषा को बदल सकता है।

    आओ, फिर से गाँवों की ओर लौट चलें -  
 
    आश्चर्य नहीं कि आज पढ़े लिखे युवा एमबीए की पढ़ाई के बाद, मल्टी नेशन कंपनियों की नौकरी छोड़कर गाँव व खेती की ओर मुड़ रहे हैं। यहाँ पं.श्रीराम शर्मा आचार्य की पंक्तियाँ याद आती हैं, भविष्य के कदमों की आहट जिन्होंने भी सुनी है, उन सबका यही कहना है कि कल की दुनियाँ शहरों की नहीं गाँवों की होगी। शहरों की बेतहाशा बाढ़ ने ही संकट के बीज बोए हैं। यदि हम इनसे बचना चाहते हैं, तो फिर से गाँवों की ओर लौट चलें।...बेटा। किसान होना कोई छोटी बात नहीं है। किसान हैं, गाँव हैं, तो जीवन है। जितना किसान समृद्ध होंगे, गाँव विकसित होंगे, उतना ही जीवन विकसित एवं समृद्ध होगा।

    कृषि और विकासात्मक पत्रकार की भूमिका – 
 
    किसानी छोड़ते आम किसान को देखें, तो आज पहली जरुरत किसानी को एक मुनाफे के पेशे में तबदील करने की है। यदि हम समझा सकें कि किस प्रकार उत्पादन कई गुणा बढ़ सकता है, किस तरह खेती से आमदनी कई गुणा बढ़ सकती है, तो शहरों के दमघोंटू वातावरण में नरक सा जीवन जी रहा किसान शांति-सुकून भरी गाँव की खुली हवा में बापिस आ सकता है। आवश्यकता सही मार्गदर्शन की है। इस बिंदु पर कृषि पत्रकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, जो ऐसा मार्गदर्शन जुटाने में सक्षम हों। 

    पत्रकारिता एवं जन संचार संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका
 
    ऐसे में उन पत्रकारिता संस्थानों, एग्रीक्लचर-हार्टिकल्चर यूनिवर्सिटी की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, जहाँ कृषि एवं ग्रामीण पत्रकारिता का प्रशिक्षण चल रहा है, विकास पत्रकारिता की बातें हो रही हैं। यहीं से ऐसे पत्रकारों की पौध तैयार की जा सकती है, जो कृषि और गाँवों के कायाकल्प में अपनी निर्णायक भूमिका निभा सकें। लेकिन इसके लिए घिसे-पिटे पाठ्यक्रमों और कागजी तौर-तरीकों से हटकर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे, जो ऐसे कुशल पत्रकारों को तैयार कर सके।

    इस प्रक्रिया के आवश्यक चरण -
 
1.          क्लीयर मिशन एवं विजन स्टेटमेंट–ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों का लक्ष्य स्पष्ट हो, ध्येय स्पष्ट हो। वह है - किसानों की उत्पादन क्षमता बढ़ाना, खेती को घाटे की वजाए मुनाफे का पेशा बनाना। पिछड़े किसानों व समुदायों का कायाकल्प और गाँवों का सर्वाँगीण उत्कर्ष।

2.      सुपात्र विद्यार्थियों की भर्ती - ऐसे छात्र-छात्रों के प्रवेश को प्राथमिकता दी जाए, जिनमें गाँव के प्रति अनुराग हों, जो किसी न किसी रुप में किसानी से जुड़े हों या इसके कायाकल्प का भाव रखते हों। जो गाँव व दूर-दराज के पिछड़े क्षेत्रों में काम करने के लिए तैयार हों।

3.      उचित पाठ्यक्रम का निर्माण - पाठ्यक्रम ऐसा हो जो हमारे मिशन व विजन को सपोर्ट करता हो। जिसमें सैदाँतिक जानकारियों के साथ, प्रेक्टिल का आदर्श समन्वय हो। फील्ड में, किसानों के बीच, गाँव-समुदाय के बीच काम करने का प्रोजेक्ट जिसका अभिन्न हिस्सा हो।

4.      प्रोजेक्ट का पहला कदम - जिस गाँव, समुदाय या क्षेत्र में अपने विकासात्मक विजन को एप्लाई करना है, उसका सर्वेक्षण किया जाए। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आंकलन किया जाए। किसानों की समस्याओं व जरुरतों को चिन्हित किया जाए। इन्हीं के अनुरुप संभावित समाधानों की तलाश की जाए।

5.      सेवाभावी, आदर्शनिष्ठ मेंटर, मार्गदर्शक की भूमिका - इस कार्य में छात्रों के मार्गदर्शन के लिए जो शिक्षक नियुक्त हों, उनमें न्यूनतम सेवा का भाव हो, योग्यता हो, मिशनरी भाव हो। जिनके ह्दय में गाँव व किसीनी की दशा को सुधारने की तड़प हो, विद्यार्थियों के साथ मैदान में उतरने की त्वरा हो, इसके कम में बात बनेगी नहीं।

6.    यूनिवर्सिटी या संस्थान का सपोर्ट सिस्टम – इस कार्य के लिए पूरे संस्थान या विश्वविद्यालय का सहयोग अपेक्षित है। किसान, गाँव या समुदाय के उत्थान के लिए जिन संसाधनों व समर्थन की जरुरत पडेगी, उपयुक्त विभाग इसमें सहयोग करेगा, तभी काम आगे बढ़ सकेगा।

7.     किसानों के बीच नियमित संवाद, जागरुकता अभियान (एवेयरनेस कंपेअन) और मार्गदर्शन– इन छात्रों व शिक्षकों के दल का नियमित अंतराल में किसानों व ग्रामीण समुदाय के बीच संवाद आवश्यक है, ताकि आवश्यक मार्गदर्शन सतत मिलता रहे। जरुरत के अनुसार बीच-बीच में कार्यशाला एवं प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जा सकता है।

8.    सेमेस्टर ब्रेक में व्यवहारिक योग्यताबर्धन - इस क्षेत्र से जुड़े मूर्धन्य पत्रकारों का सान्निध्य एवं मार्गदर्शन, सम्बन्धित एनजीओज का विजिट, प्रगतिशील किसानों की केस स्टडीज, सरकार की कृषि नीति का अध्ययन व इनके कृषि केंद्रों का विजिट और इन सबका लाभ किसानों तक पहुँचाना। ऐसे कार्यक्रम नियमित अन्तराल पर शैक्षणिक भ्रमण या सेमेस्टर ब्रेक की इंटरनशिप के रुप में चल सकते हैं।

9.    इन प्रयोगों एवं अनुभवों का नियमित डॉक्यूमेंटेशन लेब जर्नल के रुप में कर सकते हैं। और इनका स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशन की व्यवस्था की जा सकती है, जिससे कि अधिकतर किसानों को इनका लाभ मिल सके। सामुदायिक रेडियो से प्रसारण सोने पर सुहागे का काम हो सकता है। इस पर प्रेरक टीवी डाक्यूमेंट्री बनाकर सोशल मीडिया में साझा की जा सकती हैं, जिससे कि इसका लाभ अधिकतम किसानों को मिल सके

1       एक अनुकरणीय मॉडल के साथ हो प्रयोग का अंजाम - इस तरह दो या तीन साल की डिग्री मिलते-मिलते कृषि, ग्रामीण एवं विकास पत्रकारिता में प्रशिक्षित पत्रकार तैयार हो सकेंगे। कृषि के साथ आर्थिक स्वाबलम्बन के अन्य उपाए आजमाए जा सकते हैं। ऐसे अनवरत प्रयास से एक अनुकरणीय मॉडल सामने आ सकता है, जिसका अनुकरण दूसर यूनिवर्सिटी व किसान भी कर सकें।

11 किसानों के समग्र विकास का भी रहे ध्यान - यहाँ बात खाली किसानों के आर्थिक स्तर को बढ़ाने तक सीमित नहीं रहेगी। आर्थिक स्वाबलम्बन पहला उद्देश्य है। किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही इनकी जीवन शैली व सोच में भी आवश्यक सुधार की जरुरत है। ग्रामीण विकास से जुड़े अन्य पहलुओं पर भी ध्यान दिया जा सकता है, जिससे कि गांव-समुदाय का समग्र विकास सुनिश्चित हो सके।

समय विषम, ठोस पहल की निर्णायक घड़ी - किसानों व गाँव की वर्तमान दुर्दशा को देखते हुए पत्रकारिता एवं संचार से जुड़े संस्थानों के लिए यह सामान्य समय नहीं है। यह ठोस पहल की निर्णायक घड़ियाँ हैं। सिसकती-कराहती किसानी, खेती, गाँव व इंसानियत की वर्तमान दशा को देखते हुए ठोस पहल की माँग है, यही समय की जरुरत है, युग धर्म है, जिसको पूरा किए बिना कोई भी संवेदनशील इंसान, विभाग, संस्थान व यूनिवर्सिटी चैन से नहीं बैठ सकती।

(पंतनगर कृषि विवि में 7-8 मई, 2016 को आयोजित कृषि पत्रकारिता की राष्ट्रीय कार्यशाला में संप्रेषित संदेश के आधार पर)

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