शनिवार, 28 नवंबर 2020

शोध प्रोजेक्ट लेखन की प्रक्रिया (Synopsis or steps of Project writing)

 किसी भी शोध कार्य का पहला चरण विषय का चुनाव होता है, जिसे शोध की भाषा में समस्या का निर्धारण किया जाता है। जब तक टॉपिक स्पष्ट न हो, तब तक शोध कार्य एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। यह एक समय-साध्य चरण हो सकता है, क्योंकि अपनी पसन्द, क्षमता एवं व्यापक रुप में उपयोगी विषय के चयन में समय लग सकता है। प्रायः प्रारम्भ में यह एक मोटा मोटा (vague) विषय हो सकता है, लेकिन साहित्य सर्वेक्षण, आपसी चर्चा एवं विचार मंथन के साथ जैसे-जैसे शोधार्थी अपने विषय की यथास्थिति से परिचित होते हैं और विषय की जमीनी हकीकत से रुबरू होने लगते हैं, तो विषय में जान आ जाती है, इसका व्यवहारिक स्वरुप स्पष्ट होने लगता है और समय सीमा के अन्दर पूरा हो सकने वाले टॉपिक का प्रारुप बन पाता है।

इसमें अनुभवी मार्गदर्शन के साथ व्यवस्थित बौद्धिक श्रम (शोध अध्ययन) की अहम् भूमिका रहती है अन्यथा अधिकाँशतया टॉपिक इन मानकों पर खरा न उतर पाने के कारण फिर आगे शोधार्थी के लिए कठिनाई का सबब बन जाता है। ऐसे में कुछ माह एवं वर्ष के श्रम के बाद शोधार्थियों को टॉपिक बदलते देखा जाता है और कुछ तो शोध में ही रुचि खो बैठते हैं। नीयर टू हर्ट, डीयर टू हर्ट का मार्गदर्शक वाक्य हमारे विचार में टॉपिक के चयन के संदर्भ में अहं रहता है, जो व्यवहारिक हो, साथ ही उपयोगी भी।

समस्या के निर्धारण, टॉपिक के चयन के बाद एक संक्षिप्त एवं सारगर्भित शीर्षक के तहत इसको परिभाषित किया जाता है। टॉपिक के चयन के बाद अब इसकी सिनोप्सिस या रुपरेखा लिखने की बारी आती है, जिसको निम्नलिखित चरणों में पूरा किया जाता है -

भूमिका एवं शोध की आवश्यकता (Introduction & need of study), इसमें विषय की पृष्ठभूमि, सामान्य परिचय के साथ इसके शोध-अध्ययन की आवश्यकता (need of study) पर प्रकाश डाला जाता है। प्रायः दो-तीन पृष्ठों में इसे समेट लिया जाता है। इसका उद्देश्य यह सावित करना होता है कि विषय क्यों लिया गया तथा इसकी प्रतिपुष्टि को फिर साहित्य सर्वेक्षण के आधार पर आगे विस्तार से प्रकाश डाला जाता है।

साहित्य सर्वेक्षण (Literature review), इसके अंतर्गत विषय से जुड़े अब तक के हुए शोध कार्यों को संक्षेप में सारगर्भित रुप में प्रस्तुत किया जाता है, यदि इस क्षेत्र में कुछ कार्य हुआ हो तो। यदि विषय एकदम नया है, जिसमें अधिक कार्य नहीं हुआ है, तो इसके चरों (variables) के आधार पर अब तक हुए कार्यों का सारगर्भित विवरण प्रस्तुत किया जाता है या संक्षिप्त रुपरेखा प्रस्तुत की जाती है। इसे प्रायः आरोही क्रम में लिखा जाता है। सबसे पहले हुए कार्य को सबसे पहले एवं फिर बढ़ते क्रम में वर्षवार आगे के कार्यों को प्रस्तुत किया जाता है, नवीनतम (latest) शोध कार्य को अंत में प्रस्तुत किया जाता है। और अंत में सब पर अपनी टिप्पणी देते हुए, लिए गए टॉपिक के क्षेत्र में ज्ञान की रिक्तता (knowledge gap) की घोषणा करते हुए विषय की नवीनता और मौलिकता को सिद्ध किया जाता है अर्थात शोध के माध्यम से विषय पर नया प्रकाश पड़ने वाला है या ज्ञान का नया आयाम उद्घाटित होने वाला है।

और इसके अगले चरण में शोध के उद्देश्यों को रेखांकित किया जाता है।

शोध के उद्देश्य (Objectives of research), बिंदु वार इनको परिभाषित किया जाता है, जिसके आधार पर फिर आगे शोध के अध्याय तय होते हैं।

शोध के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कौन सी शोध विधि को उपयोग में लाया जाना है, इसको अगले चरण में विस्तार से स्पष्ट किया जाता है।

शोध प्रविधि (Research methodology), इसमें सर्वप्रथम शोध की विधि (Research method) का वर्णन किया जाता है, जिसका या जिनका प्रयोग शोध उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाना है, जैसे सर्वेक्षण विधि, केस स्टडीज, अंतर्वस्तु विशलेषण आदि।

इसमें यदि प्रतिदर्श (sample) भी लिया जाना है, तो इसे स्पष्ट किया जाता है, इसकी मात्रा व चयन विधि (sampling method) को लिखा जाता है।

यदि गण्नात्मक (quantitative) शोध का भी प्रयोग किया जा रहा है, तो आँकड़ों के विश्लेषण के लिए कौन सी सांख्यिकी विधि (statistical method) अपनायी जानी है, उसकी भी चर्चा की जाती है।

तथ्यों के संकलन के उपकरणों या विधियों (data collection tools or methods) का वर्णन किया जाता है। जैसे प्रश्नावली, अनुसूचि, साक्षात्कार आदि।

शोध की सीमा (Limitation of study), इसी के साथ शोध की सीमा को भी स्पष्ट किया जाता है। जैसे यदि सर्वेक्षण मात्र स्कूली विद्यार्थियों तक सीमित है या देवसंस्कृति विवि के किन्हीं विभाग तक सीमित है आदि। या केस स्टडीज में किसी एक संस्था, व्यक्ति, पत्र-पत्रिका-टीवी चैनल या कृति तक सीमित है।

कार्य योजना (Work plan or Capterization), यहाँ शोध उद्देश्यों के अनुरुप शोध के अध्यायों का वर्णन किया जाता है। जिसमें भूमिका से लेकर उपसंहार तक तथा बीच के अध्यायों को रेखांकित किया जाता है।

अध्याय 1 – भूमिका या विषय प्रवेश

अध्याय 2

अध्याय 3

अध्याय 4

अध्याय.....

अध्याय 7 - उपसंहार एवं भावी सूझाव

शोध की प्रासांगिकता (Significance of study) इसके अंतर्गत शोध कार्य की शैक्षणिक, सामाजिक एवं प्रोफेशनल प्रासांगिकता को स्पष्ट किया जाता है।

और अंत में, संदर्भ ग्रँथ सूचि (Reference books) एवं सहायक ग्रँथ सूचि (Bibliography) आती है, जिसके अंतर्गत शोध कार्य के लिए उपयोगी पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, शोध जर्नल, वेबसाइट्स आदि की सूचि दी जाती है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि शोध कार्य के लिए पर्याप्त मैटर उपलब्ध है और शोधार्थी पूरी तैयारी के साथ आगे बढ़ने के लिए आवश्यक साधन सामग्री से लैंस है।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

Measures of central tendencies (केंद्रिय प्रवृत्ति के माप)

केंद्रिय प्रवृति वह माप हैं, जो समूह या आँकडों का केंद्रिय प्रतिनिधित्व (central representation) करते हैं।

गैरेट के अनुसार, इसकी उपयोगिता को दो रुप में समझा जा सकता है,

1.      यह एक औसत है, जो समूह के संदर्भ में एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है।

2.      इसके द्वारा हम दो या अधिक समूहों की तुलना कर सकते हैं।

सी रोस के शब्दों में, यह वह मान है, जो सम्पूर्ण आँकड़ों का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व करता है।

इसके प्रमुखतया तीन प्रकार हैं -

(1)Mean (मध्यमान) (2) Median (मध्याँक) और (3) Mode (बहुलाँक)

Mean (मध्यमान)

इसे कभी-कभी अंकगणितीय औसत (Arithmetic average) भी कहा जाता है, जब कि एक समूह के आँकड़ों या प्राप्ताँकों को जोड़कर समूह की संख्या से विभाजित किया जाता है।

जैसे, 7 विद्यार्थियों की एक कक्षा में छात्रों के प्राप्ताँक – 10,15,13,16,3,4,16 है, तो इनका योग 10+15+13+16+3+4+16=77 बनता है, इसको 7 से भाग करने पर 77/7=10 आता है। इस तरह कक्षा का मध्यमान (mean) या औसत 10 अंक हैं।

 

Median (मध्याँक)

एक ऐसा बिंदु है जो वितरण (distribution) को दो बराबर भागों में बाँटता है।

जब अव्यवस्थित आँकड़ों को बढ़ते क्रम (आरोही क्रम Ascending order) या घटते क्रम (अवरोही क्रम Descending order) में सुव्यवस्थित किया जाता है, जो सुव्यवस्थित श्रृंखला का मध्य बिंदु मध्याँक कहलाता है।

यदि संख्या विषम (Odd) हो तो –

(N+1)/2 वीं संख्या मध्याँक होगी।

जैसे, दी गई संख्याएं – 7,10,8,12,9,11,7

यहाँ कुल 7 संख्याएं हैं, जो विषम है, ऐसे में आरोही क्रम में श्रृंखला को व्यवस्थित करने पर,

7,7,8,9,10,11,12 आता है।

यहाँ (7+1)/2th अर्थात् 8/2th अर्थात् 4th संख्या 9 आ रही है, जो यहाँ मध्यमान होगी।

यदि संख्या सम (Even) हो तो –

माना दी गई सम संख्याएँ (6) हैं, जैसे - 7,8,9,10,11,12

मध्याँक होगा = [N/2th term + (N/2+1)th term]/2

= [6/2th term + (6/2+1)th term]/2

=[3rd term + (3+1)th term]/2

=[3rd term + 4th term]/2

= [9+10]/2 = 19/2 = 9.5 Answer

 

Mode (बहुलाँक)

वह अंक जो सबसे अधिक बार घटित होता है।

जैसे – 1,7,5,4,3,2,1

व्यवस्थित करने पर, 1,1,2,3,4,5,7

बहुलाँक = 1

Use of mean (मध्यमान की उपयोगिता)

1.       जब एक वितरण का रुप सामान्य हो अर्थात् प्राप्ताँक एक केंद्रिय बिंदु के चारों ओर समानरुप से वितरित हों।

2.       जब सबसे अधिक स्थिर एवं विश्वसनीय केंद्रिय प्रवृति का माप ज्ञात करना हो।

3.       जब सांख्यिकी के अन्य माप जैसे – मानक विचलन (standard deviation), सहसम्बन्ध गुणाँक (coefficient of correlation) आदि ज्ञात करने हों।

 

Use of median (मध्याँक की उपोगिता)

1.       जब वितरण का शुद्ध मध्य बिंदु ज्ञात करना होता है।

2.       जब सीमान्त प्राप्ताँक ऐसे हों जो मध्यमान (mean) को गंभीर रुप से प्रभावित करते हों। जैसे – 4,5,6,7,8

Mean = (4+5+6+7+8)/5 = 30/6=6

Also the Median = 6

But if scores are like – 4,5,6,7,50

Then mean = (4+5+6+7+50)/5=14.4 (यहाँ मध्यमान श्रृंखला के केंद्रीय माप की सही जानकारी नहीं दे पा रहा है, क्योंकि चार व्यक्तियों के अंक इसके आसपास भी नहीं हैं।)

जबकि Median = 6 इसकी सही जानकारी दे पा रहा है।

3.       ऐसी स्थिति में विशेष उपयोगी हैं जब अंक वितरण सामान्य न होकर विषम (skewed) हो।

4.       यह उस स्थिति में उपयुक्त रहता है, जबकि अंक वितरण अपूर्ण हो। तथा आरम्भ या अंत के कुछ अंक छूट गए हों।

Use of mode (बहुलाँक की उपयोगिता)

1.      जब केंद्रिय प्रवृति का त्वरित एवं मोटा मोटा (approximate) मापन भर करना हो।

2.      मध्याँक की तरह इस पर भी अंक वितरण के प्रारम्भिक व अंतिम अंकों का प्रभाव नहीं पड़ता है।

3.      बहुलाँक वितरण का सबसे अधिक संभावित मूल्य तथा सबसे अधिक महत्वपूर्ण मूल्य होता है। यह सीमान्त अंको को महत्व न देकर केवल सबसे अधिक प्रचलित एवं लोकप्रिय अंको को महत्व देता है। अतः व्यवहारिक जगत में इसका उपयोग सबसे अधिक होता है। उदाहरण, स्त्री व पुरुषों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले जुत्तों या कपड़ों का साइज।

रविवार, 15 नवंबर 2020

भारतीय प्रेस दिवस (16 नबम्वर), भाग-2

 भारतीय पत्रकारिता दशा, दिशा एवं दायित्वबोध

 ऐसे में आजादी के संघर्ष के दौर की पत्रकारिता पर एक नज़र उठाना जरुरी हो जाता है।

स्वतंत्रता संग्राम की पत्रकारिताएक मिशन

आजादी के दौर में पत्रकारिता एक मिशन थी, जिसका अपना मकसद था देश को गुलामी से आजाद करना, जनचेतना का जागरण और अपने सांस्कृतिक गौरवभाव से परिचय। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महावीरप्रसाद द्विवेदी, श्रीअरविंद से लेकर गणेशशंकर विद्यार्थी और माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर विष्णु पराड़कर तक आदर्श पत्रकारों की पूरी फौज इसमें सक्रिय थी। वास्तव में देश को आजाद करने में राजनीति से अधिक पत्रकारिता की भूमिका थी। स्वयं राजनेता भी पत्रकार की भूमिका में सक्रिय थे। तिलक से लेकर लाला लाजपतराय, सुभाषचंद्र बोस से लेकर गांधीजी व डॉ. राजेंद्रप्रसाद जैसे राजनेता इसका हिस्सा थे।

 आजादी के बाद क्रमशः इस मिशन के भाव का क्षय होता है। शुरुआती दोतीन दशकों तक नेहरुयुग के समाजवादी विकास मॉडल के नाम पर विकास पत्रकारिता चलती रही। लेकिन आपात के बाद प्रिंटिंग प्रेस में नई तकनीक के आगमन व उदारीकरण के साथ इसमें व्यावसायीकरण का दौर शुरु हो जाता है। मीडिया एक उद्योग का रुप अख्तियार कर लेता है, और पत्रकारिता के मानक क्रमशः ढीले पड़ने लगते हैं। पत्रकारिता से मिशन के भाव का लोप हो जाता है और पत्रकारिता के आदर्श धूमिल होते जाते हैं।

इसकी एक झलक 2001 में प्रकाशित प्रेस परिषद की रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाती है, जिसमें तत्कालीन भारतीय पत्रकारिता के व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर उभरती चिंतनीय प्रवृतियों को रेखांकित किया गया था, जो निम्न प्रकार से थीं -

1.     विशेष वर्ग का ध्यान, आम जनता से क्या काम

2.     जनसराकारों की उपेक्षा या दमन

3.     आर्थिक पत्रकारों को अनावश्यक महत्व

4.     गल्त एवं भ्रामक सूचना

5.     राजनेताओँ एवं व्यावसायिओं का साया

6.     अपर्याप्त विकासपरक पत्रकारिता

7.     जनता की अपेक्षा बाजार को प्रधानता

8.     नारी शक्ति का अवाँछनीय चित्रण

9.     गप्प-शप को अनावश्यक महत्व

10.   सनसनी खबरों को प्रधानता

11.   व्यैक्तिक जीवन में ताक-झाँक

12.   पपराजी का बढता सरदर्द

13.   सूचना संग्रह के वेईमान तरीके

14.   अवाँछनीय सामग्री का बढ़ता प्रकाशन

15.   दुर्घटना एवं दुखद घटनाओँ के प्रति अमानवीय रवैया

16.   विज्ञापन और संपादकीय में घटता विभेद

17.   पत्रकार की निर्धारित योग्यता के मानदण्ड का अभाव

18.   ओपीनियन पोल की खोल

19.   प्रकाशन या सूचना के दमन में रिश्वत का बढता चलन

20.   मुद्दों का उथला एवं अप्रमाणिक प्रस्तुतीकरण

21.   विज्ञापन की बढती जगह

22.   पश्चमी संस्कृति एवं मूल्यों का अँधानुकरण

23.   प्रलोभन के आगे घुटने टेकता पत्रकार

24.   साम्प्रदायिकता का बढ़ता जहर

25.   अपराध और सामाजिक बुराइयों का गौरवीकरण

26.   अपराधी पर समयपूर्व निर्णय की अधीरता (मीडिया ट्रायल)

27.   प्रतिपक्ष के तर्कों व दलीलों की उपेक्षा

28.   संपादक के नाम पत्र में गंभीरता का अभाव

29.   अनावश्यक प्रचार से वचाव

30.   विज्ञापन के साय में आजादी खोती पत्रकारिता

31.   संपादकीय गरिमा का ह्रास

भारतीय पत्रकारिता की उपरोक्त नकारात्मक प्रवृतियां आज लगभग 19 वर्षों के बाद और गंभीर रुप ले चुकी हैं। जिसमें पेड न्यूज जैसे घुन के साथ पत्रकारिता एक बिकाऊ पेशा तक बन चुकी है। कॉर्पोरेट घरानों, राजनैतिक दलों व राष्ट्रविरोधी शक्तियों के हस्तक्षेप खुलकर काम कर रहे हैं। टेक्नोलॉजी के विकास के साथ आपसी प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है, लाभ कमाने के लिए तमाम हठकंडे अपनाए जा रहे हैं। पत्रकारिता का गिरता स्तर ऐसे में चिंता का विषय है।

कन्वर्जेंस के वर्तमान दौर में टीवी पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता के संकट के सबसे गंभीर दौर से गुजर रही है। सुबह ग्रह-नक्षत्र-भाग्यफल, दोपहर को फिल्मी दुनियाँ की चटपटी गपशप और शाम के प्राईम टाईम की ब्रेकिंग न्यूज और निष्कर्षहीन कानफोड़ू बहसवाजी, रात को भूतप्रेत, नाग नागिन, बिगबोस का हंगामा यह टीवी की दुनियाँ की एक मोटी सी तस्वीर है, जिसके चलते टीवी माध्यम के प्रति गंभीर दर्शकों का मोहभंग हो चला है। आश्चर्य यह है कि इस सबके बीच भी इन कार्यक्रमों की टीआरपी बर्करार है, जो विचारणीय है। कुछ ही चैनल अपनी गंभीरता और विश्वसनीयता को बनाए हुए हैं, व्यापक स्तर पर स्थिति चिंताजनक है। कंटेंट आधारित पत्रकारिता के संदर्भ में टीवी माध्यम व्यापक स्तर पर अकाल के दौर से गुजर रहा है कहें तो अतिश्योक्ति न होगी।

वेब मीडिया अपने लोकताँत्रिक स्वरुप, इंटरएक्टिवनेस के कारण लोकप्रिय हो चुका है। लेकिन बच्चों से लेकर बुजुर्ग, किशोर से लेकर युवा एवं प्रौढ़ इसकी लत के शिकार होते जा रहे हैं। इससे एडिक्ट मनोरोगियों की संख्या बढ़ रही है। इसके साथ इंफोर्मेशन बम्बार्डमेंट के युग में ईंफोर्मेशन ऑवरलोड़ की समस्या बनी हुई है और फर्जी सूचना (फेक न्यूज) का संकट एक नई चुनौती बनकर सामने खड़ा है। आम उपभोक्ता के लिए इससे आ रही सूचनाओं का रचनात्मक उपयोग कठिन ही नहीं दुष्कर हो चला है।

उपरोक्त वर्णित सीमाओं के बावजूद तुलनात्मक रुप में प्रिंट मीडिया की साख बनी हुई है, लेकिन धीरे-धीरे यह माध्यम इंटरनेट में समा रहा है। हालांकि भारत में अगले 2-3 दशकों तक इसका अस्तित्व बना रहेगा, ऐसा विशेषज्ञों का मानना है। और सभी माध्यमों (रेडियो, टीवी, फिल्म, अखबार, मैगजीन) के इंटरनेट में समाने से वेब मीडिया भविष्य का माध्यम बनना तय है।

 नैतिक उत्थान, राष्ट्र निर्माण एवं आधुनिक पत्रकारिता

अपनी व्यावसायिक मजबूरियों के चलते उद्योग बन चुकी मुख्यधारा की पत्रकारिता की सीमाएं समझी जा सकती हैं। हालांकि इसके बीच भी संभावनाएं शेष हैं। मीडिया में चल रहे सकारात्मक प्रयोग आशा की किरण की भांति आशान्वित करते हैं। पॉजिटिव स्टोरीज हालांकि अंदर के पन्नों में किन्हीं कौनों तक सिमटी मिलती हैं, लेकिन इनकी संख्या बढ़ रही है। दैनिक भास्कर हर सोमवार फ्रंट पेज में सिर्फ पाजिटिव न्यूज को दे रहा है, जो अनुकरणीय है। अमर उजाला में नित्य सम्पादकीय पृष्ठ पर सकारात्मक सक्सेस स्टोरीज पर आधारित मंजिलें ओर भी हैं तथा अंतर्ध्वनि जैसे स्तम्भ पाठकों को नित्य प्रेरक डोज देने वाले सराहनीय प्रयास हैं। ऐसे ही सकारात्मक प्रयास बाकि अखबारों में भी यदा कदा अंदर के पृष्ठों पर प्रकाशित हो रहे हैं।

किसानों को लेकर दूरदर्शन के किसान चैनल जैसी पहल अपनी तमाम कमियों के बावजूद सराहनीय है। प्राइवेट चैनल दिन भर की ब्रेकिंग न्यूज के बीच कुछ पल आम जनता को कवर करते हुए किसान, गरीब, पिछड़े व वेसहारा तबके की सुध-बुध ले सकते हैं। प्रेरक सक्सेस स्टोरीज से दर्शकों का उत्साहबर्धन एवं स्वस्थ मनोरंजन कर सकते हैं।

वेब मीडिया अपने अतिवादी स्वरुप के साथ तमाम खामियों के बावजूद अल्लादीन के चिराग की तरह है, जिसमें खोजने पर नाना प्रकार के सकारात्मक प्रयोग खोजे जा सकते हैं।

एक बात और गौरतलब है कि हर जन माध्यमों में आध्यात्मिक कंटेट की मात्रा बढ़ती जा रही है, जिसके साथ मीडिया में पॉजिटिव स्पेस बढ़ता जा रहा है। अखबारों में नित्य स्तम्भ छप रहे हैं, साप्ताहिक परिशिष्ट आ रहे हैं,  टीवी में आध्यात्मिक चैनलों की संख्या बढ़ी-चढ़ी है तथा इंटरनेट में ऐसी प्रेरक सामग्री की भरमार है। इनकी गुणवत्ता को लेकर सबाल उठ सकते हैं, लेकिन एक शुरुआत हो चुकी है, जो समाज के नैतिक विकास एवं राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। 

बनें समाधान का हिस्सा, निभाएं अपनी भूमिका

व्यावसायिकरण के दौर से गुजर रही भारतीय पत्रकारिता की उपरोक्त वर्णित तमाम खामियों के वावजूद इसकी लोकतंत्र के चतुर्थ स्तम्भ के रुप में भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। इसकी प्रोफेशनल सीमाओं के बीच समाधान बहुत कुछ हमारे आपके हाथ में भी है। मीडिया कन्वर्जेंस की ओर बढ़ रहे जमाने में नियंत्रण हमारे हाथ में है। जो टीवी सीरियल, टीवी कार्यक्रम या चैनल ठीक नहीं है, उन्हें न देखना हमारे आपके हाथ में है, रिमोट से उन्हें बंद कर सकते हैं। मिलजुल कर यदि हम यह करते हैं, तो उसकी टीआरपी गिरते ही इनका गंदा एवं कुत्सित खेल खुद व खुद खत्म हो जाएगा। यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो फिर हम ऐसे कार्यक्रमों को झेलने की नियति से नहीं बच सकते।

फिर, मोबाईल हमारे हाथ में है, हम क्या मेसेज भेजते हैं, क्या देखते हैं, क्या फोर्वार्ड करते हैं, कितनी देर मोबाईल से चिपके रहते हैं, कितना इससे दूर रहते हैं - सबकुछ हमारे हाथ में है। सोशल मीडिया के युग में हम सब इसके उपभोक्ता के साथ एक संचारक की भूमिका में भी हैं, ऐसे में हम अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। अब ये दारोमदार हम आप पर है कि हम सोशल मीडिया का प्रयोग मालिक की तरह करते हैं या इसके गुलाम बन कर रह जाते हैं।

 यहाँ एक जिम्मेदार मीडिया संचारक के रुप में हम एक नागरिक पत्रकार की भूमिका में अपना योगदान दे सकते हैं। यदि हमें कोई समाधान सूझता हो तो उसे किसी फोटो, मैसेज, कविता, ब्लॉग पोस्ट, लेख, फीचर या वीडियो आदि के माध्यम से उपयुक्त प्लेटफॉर्म पर शेयर, प्रकाशित एवं अपलोड़ कर सकते हैं। सारा दारोमदार जाग्रत नागरिकों एवं प्रबुद्ध मीडिया उपभोक्ताओं पर है। मात्र मीडिया पर दोषारोपण करने से बात बनने वाली नहीं। 

अंत में यही कहना चाहेंगे कि,

माना चारों ओऱ घुप्प अंधेरा, लेकिन दिया जलाना है कब मना 

यदि कमरे में अंधेरा छा गया है, तो अंधेरे को कोसने और इसमें लाठी भांजने भर से कुछ होने वाला नहीं। आवश्यकता है तो बस एक दीया भर जलाने की, जिसकी शुरुआत हम स्वयं से कर सकते हैं, अपने सकारात्मक संचार एवं सार्थक संदेश के माध्यम से।

यदि लेख का पहला भाग नहीं पढ़ा हो तो, आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं, भारतीय पत्रकारिता की दशा एवं दिशा - एक विहंगम दृष्टि।

पुस्तक परिचय - आध्यात्मिक पत्रकारिता

  आध्यात्मिक पत्रकारिता को एक विधा के रुप में स्थापित करने का विनम्र प्रयास आध्यात्मिक पत्रकारिता एक उभरती हुई विधा है , जिसके दिग्दर्शन...