किसी भी शोध कार्य का पहला चरण विषय का चुनाव होता है, जिसे शोध की भाषा में समस्या का निर्धारण किया जाता है। जब तक टॉपिक स्पष्ट न हो, तब तक शोध कार्य एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। यह एक समय-साध्य चरण हो सकता है, क्योंकि अपनी पसन्द, क्षमता एवं व्यापक रुप में उपयोगी विषय के चयन में समय लग सकता है। प्रायः प्रारम्भ में यह एक मोटा मोटा (vague) विषय हो सकता है, लेकिन साहित्य सर्वेक्षण, आपसी चर्चा एवं विचार मंथन के साथ जैसे-जैसे शोधार्थी अपने विषय की यथास्थिति से परिचित होते हैं और विषय की जमीनी हकीकत से रुबरू होने लगते हैं, तो विषय में जान आ जाती है, इसका व्यवहारिक स्वरुप स्पष्ट होने लगता है और समय सीमा के अन्दर पूरा हो सकने वाले टॉपिक का प्रारुप बन पाता है।
इसमें अनुभवी मार्गदर्शन के साथ व्यवस्थित बौद्धिक श्रम (शोध अध्ययन) की अहम् भूमिका रहती है अन्यथा अधिकाँशतया टॉपिक इन मानकों पर खरा न उतर पाने के कारण फिर आगे शोधार्थी के लिए कठिनाई का सबब बन जाता है। ऐसे में कुछ माह एवं वर्ष के श्रम के बाद शोधार्थियों को टॉपिक बदलते देखा जाता है और कुछ तो शोध में ही रुचि खो बैठते हैं। नीयर टू हर्ट, डीयर टू हर्ट का मार्गदर्शक वाक्य हमारे विचार में टॉपिक के चयन के संदर्भ में अहं रहता है, जो व्यवहारिक हो, साथ ही उपयोगी भी।
समस्या के निर्धारण, टॉपिक के चयन के बाद एक संक्षिप्त एवं सारगर्भित शीर्षक के तहत इसको परिभाषित किया जाता है। टॉपिक के चयन के बाद अब इसकी सिनोप्सिस या रुपरेखा लिखने की बारी आती है, जिसको निम्नलिखित चरणों में पूरा किया जाता है -
भूमिका एवं शोध की आवश्यकता (Introduction & need of study), इसमें विषय की पृष्ठभूमि, सामान्य परिचय के साथ इसके शोध-अध्ययन की आवश्यकता (need of study) पर प्रकाश डाला जाता है। प्रायः दो-तीन पृष्ठों में इसे समेट लिया जाता है। इसका उद्देश्य यह सावित करना होता है कि विषय क्यों लिया गया तथा इसकी प्रतिपुष्टि को फिर साहित्य सर्वेक्षण के आधार पर आगे विस्तार से प्रकाश डाला जाता है।
साहित्य सर्वेक्षण (Literature review), इसके अंतर्गत विषय से जुड़े अब तक के हुए शोध कार्यों को संक्षेप में सारगर्भित रुप में प्रस्तुत किया जाता है, यदि इस क्षेत्र में कुछ कार्य हुआ हो तो। यदि विषय एकदम नया है, जिसमें अधिक कार्य नहीं हुआ है, तो इसके चरों (variables) के आधार पर अब तक हुए कार्यों का सारगर्भित विवरण प्रस्तुत किया जाता है या संक्षिप्त रुपरेखा प्रस्तुत की जाती है। इसे प्रायः आरोही क्रम में लिखा जाता है। सबसे पहले हुए कार्य को सबसे पहले एवं फिर बढ़ते क्रम में वर्षवार आगे के कार्यों को प्रस्तुत किया जाता है, नवीनतम (latest) शोध कार्य को अंत में प्रस्तुत किया जाता है। और अंत में सब पर अपनी टिप्पणी देते हुए, लिए गए टॉपिक के क्षेत्र में ज्ञान की रिक्तता (knowledge gap) की घोषणा करते हुए विषय की नवीनता और मौलिकता को सिद्ध किया जाता है अर्थात शोध के माध्यम से विषय पर नया प्रकाश पड़ने वाला है या ज्ञान का नया आयाम उद्घाटित होने वाला है।
और इसके अगले चरण में शोध के उद्देश्यों को रेखांकित किया जाता है।
शोध के उद्देश्य (Objectives of research), बिंदु वार इनको परिभाषित किया जाता है, जिसके आधार पर फिर आगे शोध के अध्याय तय होते हैं।
शोध के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कौन सी शोध विधि को उपयोग में लाया जाना है, इसको अगले चरण में विस्तार से स्पष्ट किया जाता है।
शोध प्रविधि (Research methodology), इसमें सर्वप्रथम शोध की विधि (Research method) का वर्णन किया जाता है, जिसका या जिनका प्रयोग शोध उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाना है, जैसे सर्वेक्षण विधि, केस स्टडीज, अंतर्वस्तु विशलेषण आदि।
इसमें यदि प्रतिदर्श (sample) भी लिया जाना है, तो इसे स्पष्ट किया जाता है, इसकी मात्रा व चयन विधि (sampling method) को लिखा जाता है।
यदि गण्नात्मक (quantitative) शोध का भी प्रयोग किया जा रहा है, तो आँकड़ों के विश्लेषण के लिए कौन सी सांख्यिकी विधि (statistical method) अपनायी जानी है, उसकी भी चर्चा की जाती है।
तथ्यों के संकलन के उपकरणों या विधियों (data collection tools or methods) का वर्णन किया जाता है। जैसे प्रश्नावली, अनुसूचि, साक्षात्कार आदि।
शोध की सीमा (Limitation of study), इसी के साथ शोध की सीमा को भी स्पष्ट किया जाता है। जैसे यदि सर्वेक्षण मात्र स्कूली विद्यार्थियों तक सीमित है या देवसंस्कृति विवि के किन्हीं विभाग तक सीमित है आदि। या केस स्टडीज में किसी एक संस्था, व्यक्ति, पत्र-पत्रिका-टीवी चैनल या कृति तक सीमित है।
कार्य योजना (Work plan or Capterization), यहाँ शोध उद्देश्यों के अनुरुप शोध के अध्यायों का वर्णन किया जाता है। जिसमें भूमिका से लेकर उपसंहार तक तथा बीच के अध्यायों को रेखांकित किया जाता है।
अध्याय 1 – भूमिका या विषय प्रवेश
अध्याय 2 –
अध्याय 3 –
अध्याय 4 –
अध्याय.....
अध्याय 7 - उपसंहार एवं भावी सूझाव
शोध की प्रासांगिकता (Significance of study) इसके अंतर्गत शोध कार्य की शैक्षणिक, सामाजिक एवं प्रोफेशनल प्रासांगिकता को स्पष्ट किया जाता है।
और अंत में, संदर्भ ग्रँथ सूचि (Reference books) एवं सहायक ग्रँथ सूचि (Bibliography) आती है, जिसके अंतर्गत शोध कार्य के लिए उपयोगी पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, शोध जर्नल, वेबसाइट्स आदि की सूचि दी जाती है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि शोध कार्य के लिए पर्याप्त मैटर उपलब्ध है और शोधार्थी पूरी तैयारी के साथ आगे बढ़ने के लिए आवश्यक साधन सामग्री से लैंस है।