बुधवार, 30 जून 2021

पुस्तक परिचय - आध्यात्मिक पत्रकारिता

 

आध्यात्मिक पत्रकारिता को एक विधा के रुप में स्थापित करने का विनम्र प्रयास

आध्यात्मिक पत्रकारिता एक उभरती हुई विधा है, जिसके दिग्दर्शन समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रहे नियमित स्तम्भ, साप्ताहिक परिशिष्ट, आध्यात्मिक टीवी चैनल्ज तथा वेब माध्यम में आध्यात्मिक सामग्री के विस्फोट के रुप में किए जा सकते हैं। इसके बावजूद आध्यात्मिक पत्रकारिता एक उपेक्षित विधा है, शायद ही किसी मीडिया घराने ने इसको स्वतंत्र बीट के रुप में मान्यता दी हो, जिसमें विषय विशेषज्ञ काम करते हों। लेकिन इसके कंटेट की पावनता, सात्विकता एवं प्रखरता के आधार पर इससे उमीदें बहुत हैं। यदि सही ढंग से इसको मुख्यधारा की पत्रकारिता में स्थान मिल सके तथा इसके लिए विशेषज्ञ पत्रकारों के प्रशिक्षण का तंत्र विकसित हो सके, तो यह स्वयं में एक बहुत बड़ा कार्य होगा। युग मनीषियों का तो यहाँ तक कहना है कि आध्यात्मिक पत्रकारिताएक नए युग का सुत्रपात कर सकती है। पत्रकारिता के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी क्राँति होगी। लेकिन इन महान संभावनाओं के साथ इसकी चुनौतियाँ भी कम नहीं। प्रस्तुत पुस्तक इन्हीं बिंदुओं पर समुचित प्रकाश डालती है और आध्यात्मिक पत्रकारिता को पत्रकारिता की एक विधा के रुप में स्थापित करने का एक बिनम्र प्रयास है। यह इस उभरती विधा पर संभवतः पहली समग्र पुस्तक है।

विषय की संग्रहणीय एवं पठनीय पुस्तक

वरिष्ठ पत्रकार, विकास संचारक एवं वर्तमान में EMRC, IIT Roorkee के निर्देशक, राजकुमार भारद्वाज के शब्दों में - आध्यात्मिक पत्रकारिता विषयक यह पुस्तक अपने आप में एक अनूठी पुस्तक है, प्रत्युत यह इस क्षेत्र की हस्ताक्षर पुस्तिका सिद्ध हो सकती है, क्योंकि इससे पहले आध्यात्मिक पत्रकारिता के विषय में बहुत ही कम लिखा गया है। लेखक डॉ. सुखनंदन सिंह में आध्यात्मिक पत्रकारिता पर लिखने का विचार उस शांतिकुंज की परंपरा से प्रस्फुटित हुआ जिसका बीजारोपण गुरुदेव पं. श्रीरामशर्मा आचार्य ने किया था। गुरुदेव इस युग के ऐसे सबसे बड़े संवादक थे, जिन्होंने सबसे समान संवाद की सर्वाधिक सम्पन्न सुपरम्परा का सुमार्ग दिखाया। उनका मानना था किआध्यात्मिक पत्रकारिता की पृष्ठभूमि में विचारक्राँति के माध्यम से भारत को पुनः विश्वगुरु की उपाधि दी जा सकती है। वर्तमान अध्यात्मच्युत समाज नाना प्रकार के तनावों और जीवन की कठिनाईयों से जूझ रहा है। मानवीय संबंध और प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता अपने निचले स्तर पर पहुंच गए हैं।आस्था संकट के इस दौर में आध्यात्मिक पत्रकारिता का महत्व और बढ़ गया है। धर्म और अध्यात्म की पत्रकारिता गंभीरतापरक हो, तो आज के युग में मानवता पर यह बड़ा उपकार होगा। अत्यंत सहज से इस गूढ़ विषय पर प्रकाश डालती यह पुस्तक निश्चित ही नवोदितों का पथ प्रदर्शन करेगी। अपनी सम्यक प्रस्तुति के आधार पर पुस्तक ने अकादमिक स्तर पर आध्यात्मिक पत्रकारिता को प्रतिष्ठित करने की ठोस पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। यह पुस्तक पत्रकारों, विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए संग्रहणीय और सदैव पठनीय रहेगी।

पुस्तक निम्न 15 अध्यायों में विभाजित है -

·        आध्यात्मिक पत्रकारिता - उभरता स्वरुप एवं उपेक्षित विधा 

 

·        धर्म, अध्यात्म एवं आध्यात्मिक पत्रकारिता                        

 

·        अध्यात्म की आवश्यकता, महत्व एवं आधारभूत सोपान         

 

·        आध्यात्मिक पत्रकारिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं विकास यात्रा   

 

·        समाचार पत्रों में हो रही आध्यात्मिक कवरेज                

 

·        समाचार एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रस्तुत आध्यात्मिक सामग्री

 

·        आध्यात्मिक पत्रिकाओं की विषयवस्तु एवं प्रस्तुतीकरण

 

·        टीवी माध्यमों में प्रसारित हो रहा अध्यात्म                      

 

·        वेब माध्यम में आध्यात्मिक सामग्री का विस्फोट          

 

·        वर्तमान मूल्य संकट एवं आध्यात्मिक पत्रकारिता              

 

·        आध्यात्मिक पत्रकारिता की संभावनाएंएवं चुनौतियाँ           

 

·         आध्यात्मिक पत्रकारिता का सम्यक स्वरुप             

 

·        विशेषज्ञों की राय में आध्यात्मिक पत्रकारिता                 

 

·        उपसंहारएवंआध्यात्मिक पत्रकारिता का भविष्य              

 

·        वर्तमान शोध सीमाएं एवं कतिपय सुझाव


आध्यात्मिक पत्रकारिता को दिशा देता नैष्ठिक प्रयास

प्रो. गोविंद सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद, वर्तमान में भारतीय संचार संस्थान (IIMC), दिल्ली में डीन एकेडमिक्स के शब्दों में - आज धार्मिक - आध्यात्मिक पत्रकारिता के शिक्षण की तीव्र आवश्यकता है। जब धर्म हमारे जीवन में इतनी आक्रामकता के साथ प्रवेश कर रहा हो तो आप शिक्षा या मीडिया में कैसे उसे नजरंदाज कर सकते हैं? लेकिन सच यही है कि अब तक हमारे मीडिया में, मीडिया संस्थानों में इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया गया। एक बंधे-बँधाये ढर्रे पर रिपोर्टिंग हो रही है, परिशिष्ठ निकल रहे हैं। समाचार पत्रों में धर्म की कोई बीट नहीं होती। धर्म का परिशिष्ठ निकालने के लिए कोई विशेषज्ञ नहीं होते। उनमें गलतियाँ भी बहुत होती हैं। इसलिए यह जरूरी है कि मीडिया शिक्षा में और मीडिया घरानों में धर्म के साथ जो भेदभाव हो रहा है, वह बंद हो। यह खुशी की बात है कि इधर धार्मिक-आध्यात्मिक पत्रकारिता की ओर लोगों का ध्यान जा रहा है। यह पुस्तक उसी का एक विरल उदाहरण है। इस पुस्तक की रूपरेखा को देखकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। प्रो. सुखनंदन सिंह ने पूरे मनोयोग से आध्यात्मिक पत्रकारिता का न सिर्फ अध्ययन किया है, अपितु उसे प्रतिष्ठापित भी किया है। इसके लिए वे साधुवाद के अधिकारी हैं। निश्चय ही आपके हाथों में पहुँच कर पुस्तक अपना काम करेगी और आध्यात्मिक पत्रकारिता को एक दिशा देगी।

रविवार, 30 मई 2021

पुस्तक समीक्षा – आध्यात्मिक पत्रकारिता

 बहुआयामी आध्यात्मिक पत्रकारिता की पड़ताल

राजकिशन नैन, दैनिक ट्रिब्यून, चंडीगढ़

अतीत में भारत ने अध्यात्म के क्षेत्र में जो सर्वोच्च मुकाम हासिल किया था, उसके दृष्टिगत यहाँ अध्यात्म और पत्रकारिता का साथ होना नितांत आवश्यक है। किंतु भारतीय पत्रकारिता के निरंतर व्यावसायिकता की दलदल में धंसते जाने के कारण इसमें अध्यात्म का स्थान अभी तक ऊंट के मुंह में जीरे के समा है। प्रो. सुखनन्दन सिंह की किताब आध्यात्मिक पत्रकारिता में अध्यात्म से जुड़ी पत्रकारिता की जो पड़ताल गहन शोध एवं अनुसंधान के बाद की गई है, वह बहुआयामी और सारगर्भित होने के साथ-साथ कतई सटीक व तथ्यपरक है।

किताब में आध्यात्मिक पत्रकारिता के स्वरुप, उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं विकास से लेकर अध्यात्म के महत्व, समाचार पत्रों-पत्रिकाओं व आध्यात्मिक पत्रिकाओं में प्रस्तुत आध्यात्मिक सामग्री, टीवी और वेब माध्यमों में प्रसारित हो रहा अध्यात्म, वर्तमान मूल्य संकट एवं आध्यात्मिक पत्रकारिता, आध्यात्मिक पत्रकारिता की संभावनाएं एवं चुनौतियां तथा उसके भविष्य से जुड़े सारे विषय शामिल किये गये हैं।

लेखक ने अध्यात्म एवं पत्रकारिता के बीच तादात्मय एवं एकात्म भाव को पुख्ता करने हेतु इस किताब का प्रणयन किया है जो स्तुत्य एवं स्वागतयोग्य है। किताब की एक और खूबी यह है कि इसमें हर एक अध्याय के बाद उन स्रोतों और संदर्भ ग्रंथों की सूची है, जिनसे निकलकर यह जानकारी आप तक पहुँची है। जीवन में शाश्वत मूल्यों की रक्षा करना और देशहित एवं परोपकार के कलिए सदैव तत्पर रहना ही अध्यात्म है।

मनुष्य को नकारात्मक कार्यों से बचाने एवं परिवार, समाज और राष्ट्र के उत्थान तथा मनुष्यता को बनाये रखने के लिए अध्यात्म का महत्व निर्विवाद है। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में भारतेंदु, तिलक, श्रीअरविंद, मदनमहोन मालवीय, गणेश शँकर विद्यार्थी, माखनलाल, गाँधीजी और पराड़कर जैसे मनीषियों ने एक मिशन के नाते आध्यात्मिक पत्रकारिता को अपनाकर जनमानस को त्याग, बलिदान व संघर्ष के लिए जगाया था। उस समय देश की कमान राजनेताओं से अधिक पत्रकारों के हाथों में थी।

पं. श्रीराम शर्मा के मुताबिक संसार का सबसे बड़ा व्यक्ति वह है, जो आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न है। रामायण काल में सुभट यौद्धा हनुमान, अंगद आदि का खोजी दूत के रुप में लंका जाना उत्कृष्ट पत्रकारिता के चैतन्य स्वरुप का द्योतक है। कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध की बेहतरीन ऑडियो-विजुअल रिपोर्टिंग संजय के माध्यम से होती हुई देखी जा सकती है। तीनों लोकों में विचरने वाले नारदजी तीनों लोकों की सूचनाओं एवं घटनाओं के प्रथम ज्ञाता थे।

आदि शंकराचार्य की सांस्कृतिक यात्राएं एवं शास्त्रार्थ प्रकारान्तर में इसी की अगली कड़ियां रहीं, जिसने पूरे राष्ट्र को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोया। अंग्रेज राज में स्वामी विवेकानन्द की परिव्रज्या में आध्यात्मिक पत्रकारिता एवं संचर का दिगंतव्यापी उद्घोष होता है। नानक, कबीर, सूर, तुलसी, नामदेव एवं चैतन्य महाप्रभु सरीखे संत कवियों के सुरों में जीवंत आध्यात्मिक प्रवाह मौजूद है। आस्था संकट के इस युग  आध्यात्मक पत्रकारिता की अधिकाधिक जरुरत है।

पत्रकारिता एवं शैक्षणिक शोध से जुड़ी देश की नई पीढ़ी को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए ताकि मुख्यधारा की पत्रकारिता में आध्यात्मिक पत्रकारिता जैसी उपेक्षित विधा को उपयुक्त स्थान मिल सके।

प्रकाशक – विनसर पब्लिशिंग कंपनी, देहरादून, उत्तराखण्ड,

पृष्ठ – 175, मूल्य - 255

अमेजन पर भी उपलब्ध - 

https://www.amazon.in/dp/B08X7H8S14?ref=myi_title_dp&fbclid=IwAR2gkoMWYwV5g2FciLiqlyN_DgJXaK5gVEI_KKabz_ysr-1zIRCsuROmmlM

शनिवार, 28 नवंबर 2020

शोध प्रोजेक्ट लेखन की प्रक्रिया (Synopsis or steps of Project writing)

 किसी भी शोध कार्य का पहला चरण विषय का चुनाव होता है, जिसे शोध की भाषा में समस्या का निर्धारण किया जाता है। जब तक टॉपिक स्पष्ट न हो, तब तक शोध कार्य एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। यह एक समय-साध्य चरण हो सकता है, क्योंकि अपनी पसन्द, क्षमता एवं व्यापक रुप में उपयोगी विषय के चयन में समय लग सकता है। प्रायः प्रारम्भ में यह एक मोटा मोटा (vague) विषय हो सकता है, लेकिन साहित्य सर्वेक्षण, आपसी चर्चा एवं विचार मंथन के साथ जैसे-जैसे शोधार्थी अपने विषय की यथास्थिति से परिचित होते हैं और विषय की जमीनी हकीकत से रुबरू होने लगते हैं, तो विषय में जान आ जाती है, इसका व्यवहारिक स्वरुप स्पष्ट होने लगता है और समय सीमा के अन्दर पूरा हो सकने वाले टॉपिक का प्रारुप बन पाता है।

इसमें अनुभवी मार्गदर्शन के साथ व्यवस्थित बौद्धिक श्रम (शोध अध्ययन) की अहम् भूमिका रहती है अन्यथा अधिकाँशतया टॉपिक इन मानकों पर खरा न उतर पाने के कारण फिर आगे शोधार्थी के लिए कठिनाई का सबब बन जाता है। ऐसे में कुछ माह एवं वर्ष के श्रम के बाद शोधार्थियों को टॉपिक बदलते देखा जाता है और कुछ तो शोध में ही रुचि खो बैठते हैं। नीयर टू हर्ट, डीयर टू हर्ट का मार्गदर्शक वाक्य हमारे विचार में टॉपिक के चयन के संदर्भ में अहं रहता है, जो व्यवहारिक हो, साथ ही उपयोगी भी।

समस्या के निर्धारण, टॉपिक के चयन के बाद एक संक्षिप्त एवं सारगर्भित शीर्षक के तहत इसको परिभाषित किया जाता है। टॉपिक के चयन के बाद अब इसकी सिनोप्सिस या रुपरेखा लिखने की बारी आती है, जिसको निम्नलिखित चरणों में पूरा किया जाता है -

भूमिका एवं शोध की आवश्यकता (Introduction & need of study), इसमें विषय की पृष्ठभूमि, सामान्य परिचय के साथ इसके शोध-अध्ययन की आवश्यकता (need of study) पर प्रकाश डाला जाता है। प्रायः दो-तीन पृष्ठों में इसे समेट लिया जाता है। इसका उद्देश्य यह सावित करना होता है कि विषय क्यों लिया गया तथा इसकी प्रतिपुष्टि को फिर साहित्य सर्वेक्षण के आधार पर आगे विस्तार से प्रकाश डाला जाता है।

साहित्य सर्वेक्षण (Literature review), इसके अंतर्गत विषय से जुड़े अब तक के हुए शोध कार्यों को संक्षेप में सारगर्भित रुप में प्रस्तुत किया जाता है, यदि इस क्षेत्र में कुछ कार्य हुआ हो तो। यदि विषय एकदम नया है, जिसमें अधिक कार्य नहीं हुआ है, तो इसके चरों (variables) के आधार पर अब तक हुए कार्यों का सारगर्भित विवरण प्रस्तुत किया जाता है या संक्षिप्त रुपरेखा प्रस्तुत की जाती है। इसे प्रायः आरोही क्रम में लिखा जाता है। सबसे पहले हुए कार्य को सबसे पहले एवं फिर बढ़ते क्रम में वर्षवार आगे के कार्यों को प्रस्तुत किया जाता है, नवीनतम (latest) शोध कार्य को अंत में प्रस्तुत किया जाता है। और अंत में सब पर अपनी टिप्पणी देते हुए, लिए गए टॉपिक के क्षेत्र में ज्ञान की रिक्तता (knowledge gap) की घोषणा करते हुए विषय की नवीनता और मौलिकता को सिद्ध किया जाता है अर्थात शोध के माध्यम से विषय पर नया प्रकाश पड़ने वाला है या ज्ञान का नया आयाम उद्घाटित होने वाला है।

और इसके अगले चरण में शोध के उद्देश्यों को रेखांकित किया जाता है।

शोध के उद्देश्य (Objectives of research), बिंदु वार इनको परिभाषित किया जाता है, जिसके आधार पर फिर आगे शोध के अध्याय तय होते हैं।

शोध के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कौन सी शोध विधि को उपयोग में लाया जाना है, इसको अगले चरण में विस्तार से स्पष्ट किया जाता है।

शोध प्रविधि (Research methodology), इसमें सर्वप्रथम शोध की विधि (Research method) का वर्णन किया जाता है, जिसका या जिनका प्रयोग शोध उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाना है, जैसे सर्वेक्षण विधि, केस स्टडीज, अंतर्वस्तु विशलेषण आदि।

इसमें यदि प्रतिदर्श (sample) भी लिया जाना है, तो इसे स्पष्ट किया जाता है, इसकी मात्रा व चयन विधि (sampling method) को लिखा जाता है।

यदि गण्नात्मक (quantitative) शोध का भी प्रयोग किया जा रहा है, तो आँकड़ों के विश्लेषण के लिए कौन सी सांख्यिकी विधि (statistical method) अपनायी जानी है, उसकी भी चर्चा की जाती है।

तथ्यों के संकलन के उपकरणों या विधियों (data collection tools or methods) का वर्णन किया जाता है। जैसे प्रश्नावली, अनुसूचि, साक्षात्कार आदि।

शोध की सीमा (Limitation of study), इसी के साथ शोध की सीमा को भी स्पष्ट किया जाता है। जैसे यदि सर्वेक्षण मात्र स्कूली विद्यार्थियों तक सीमित है या देवसंस्कृति विवि के किन्हीं विभाग तक सीमित है आदि। या केस स्टडीज में किसी एक संस्था, व्यक्ति, पत्र-पत्रिका-टीवी चैनल या कृति तक सीमित है।

कार्य योजना (Work plan or Capterization), यहाँ शोध उद्देश्यों के अनुरुप शोध के अध्यायों का वर्णन किया जाता है। जिसमें भूमिका से लेकर उपसंहार तक तथा बीच के अध्यायों को रेखांकित किया जाता है।

अध्याय 1 – भूमिका या विषय प्रवेश

अध्याय 2

अध्याय 3

अध्याय 4

अध्याय.....

अध्याय 7 - उपसंहार एवं भावी सूझाव

शोध की प्रासांगिकता (Significance of study) इसके अंतर्गत शोध कार्य की शैक्षणिक, सामाजिक एवं प्रोफेशनल प्रासांगिकता को स्पष्ट किया जाता है।

और अंत में, संदर्भ ग्रँथ सूचि (Reference books) एवं सहायक ग्रँथ सूचि (Bibliography) आती है, जिसके अंतर्गत शोध कार्य के लिए उपयोगी पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, शोध जर्नल, वेबसाइट्स आदि की सूचि दी जाती है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि शोध कार्य के लिए पर्याप्त मैटर उपलब्ध है और शोधार्थी पूरी तैयारी के साथ आगे बढ़ने के लिए आवश्यक साधन सामग्री से लैंस है।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

Measures of central tendencies (केंद्रिय प्रवृत्ति के माप)

केंद्रिय प्रवृति वह माप हैं, जो समूह या आँकडों का केंद्रिय प्रतिनिधित्व (central representation) करते हैं।

गैरेट के अनुसार, इसकी उपयोगिता को दो रुप में समझा जा सकता है,

1.      यह एक औसत है, जो समूह के संदर्भ में एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है।

2.      इसके द्वारा हम दो या अधिक समूहों की तुलना कर सकते हैं।

सी रोस के शब्दों में, यह वह मान है, जो सम्पूर्ण आँकड़ों का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व करता है।

इसके प्रमुखतया तीन प्रकार हैं -

(1)Mean (मध्यमान) (2) Median (मध्याँक) और (3) Mode (बहुलाँक)

Mean (मध्यमान)

इसे कभी-कभी अंकगणितीय औसत (Arithmetic average) भी कहा जाता है, जब कि एक समूह के आँकड़ों या प्राप्ताँकों को जोड़कर समूह की संख्या से विभाजित किया जाता है।

जैसे, 7 विद्यार्थियों की एक कक्षा में छात्रों के प्राप्ताँक – 10,15,13,16,3,4,16 है, तो इनका योग 10+15+13+16+3+4+16=77 बनता है, इसको 7 से भाग करने पर 77/7=10 आता है। इस तरह कक्षा का मध्यमान (mean) या औसत 10 अंक हैं।

 

Median (मध्याँक)

एक ऐसा बिंदु है जो वितरण (distribution) को दो बराबर भागों में बाँटता है।

जब अव्यवस्थित आँकड़ों को बढ़ते क्रम (आरोही क्रम Ascending order) या घटते क्रम (अवरोही क्रम Descending order) में सुव्यवस्थित किया जाता है, जो सुव्यवस्थित श्रृंखला का मध्य बिंदु मध्याँक कहलाता है।

यदि संख्या विषम (Odd) हो तो –

(N+1)/2 वीं संख्या मध्याँक होगी।

जैसे, दी गई संख्याएं – 7,10,8,12,9,11,7

यहाँ कुल 7 संख्याएं हैं, जो विषम है, ऐसे में आरोही क्रम में श्रृंखला को व्यवस्थित करने पर,

7,7,8,9,10,11,12 आता है।

यहाँ (7+1)/2th अर्थात् 8/2th अर्थात् 4th संख्या 9 आ रही है, जो यहाँ मध्यमान होगी।

यदि संख्या सम (Even) हो तो –

माना दी गई सम संख्याएँ (6) हैं, जैसे - 7,8,9,10,11,12

मध्याँक होगा = [N/2th term + (N/2+1)th term]/2

= [6/2th term + (6/2+1)th term]/2

=[3rd term + (3+1)th term]/2

=[3rd term + 4th term]/2

= [9+10]/2 = 19/2 = 9.5 Answer

 

Mode (बहुलाँक)

वह अंक जो सबसे अधिक बार घटित होता है।

जैसे – 1,7,5,4,3,2,1

व्यवस्थित करने पर, 1,1,2,3,4,5,7

बहुलाँक = 1

Use of mean (मध्यमान की उपयोगिता)

1.       जब एक वितरण का रुप सामान्य हो अर्थात् प्राप्ताँक एक केंद्रिय बिंदु के चारों ओर समानरुप से वितरित हों।

2.       जब सबसे अधिक स्थिर एवं विश्वसनीय केंद्रिय प्रवृति का माप ज्ञात करना हो।

3.       जब सांख्यिकी के अन्य माप जैसे – मानक विचलन (standard deviation), सहसम्बन्ध गुणाँक (coefficient of correlation) आदि ज्ञात करने हों।

 

Use of median (मध्याँक की उपोगिता)

1.       जब वितरण का शुद्ध मध्य बिंदु ज्ञात करना होता है।

2.       जब सीमान्त प्राप्ताँक ऐसे हों जो मध्यमान (mean) को गंभीर रुप से प्रभावित करते हों। जैसे – 4,5,6,7,8

Mean = (4+5+6+7+8)/5 = 30/6=6

Also the Median = 6

But if scores are like – 4,5,6,7,50

Then mean = (4+5+6+7+50)/5=14.4 (यहाँ मध्यमान श्रृंखला के केंद्रीय माप की सही जानकारी नहीं दे पा रहा है, क्योंकि चार व्यक्तियों के अंक इसके आसपास भी नहीं हैं।)

जबकि Median = 6 इसकी सही जानकारी दे पा रहा है।

3.       ऐसी स्थिति में विशेष उपयोगी हैं जब अंक वितरण सामान्य न होकर विषम (skewed) हो।

4.       यह उस स्थिति में उपयुक्त रहता है, जबकि अंक वितरण अपूर्ण हो। तथा आरम्भ या अंत के कुछ अंक छूट गए हों।

Use of mode (बहुलाँक की उपयोगिता)

1.      जब केंद्रिय प्रवृति का त्वरित एवं मोटा मोटा (approximate) मापन भर करना हो।

2.      मध्याँक की तरह इस पर भी अंक वितरण के प्रारम्भिक व अंतिम अंकों का प्रभाव नहीं पड़ता है।

3.      बहुलाँक वितरण का सबसे अधिक संभावित मूल्य तथा सबसे अधिक महत्वपूर्ण मूल्य होता है। यह सीमान्त अंको को महत्व न देकर केवल सबसे अधिक प्रचलित एवं लोकप्रिय अंको को महत्व देता है। अतः व्यवहारिक जगत में इसका उपयोग सबसे अधिक होता है। उदाहरण, स्त्री व पुरुषों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले जुत्तों या कपड़ों का साइज।

पुस्तक परिचय - आध्यात्मिक पत्रकारिता

  आध्यात्मिक पत्रकारिता को एक विधा के रुप में स्थापित करने का विनम्र प्रयास आध्यात्मिक पत्रकारिता एक उभरती हुई विधा है , जिसके दिग्दर्शन...